Address of Vijay Tambe
The following is the original text in Hindi
आप सभी को जय जगत। मैं सेवाग्राम आश्रम का सचिव हूँ यह वस्तुस्थिति है, फिर भी आश्रम के प्रतिनिधि के रूप में मुझे यहाँ भाषण करनेका अवसर मिला है, मैं आश्रम की पक्षधरता नहीं करूँगा । मैं अपने विचार रखूँगा। मेरे पास 15 मिनट हैं, इसलिए मैं आपके सामने सात बिंदु प्रस्तुत करूँगा।
1. पहला बिंदु : आपने इस कार्यक्रम के लिए गांधीजी के सेवाग्राम परिसर का चयन करके यह मान लिया है कि दुनिया के दमित लोगों की पक्षधरता करने, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए अपनी जान की बाजी लगाने और समग्र समानता की मांग करने के लिए नास्तिक होना ज़रूरी नहीं है।
2. दूसरा बिंदु : गांधीजी 100 % ईश्वर मानते थे। उन्होंने पहले ईश्वर को सत्य माना, फिर सत्य को ही ईश्वर कहा। जो मेरे हाथ में कभी नहीं आएगा, पर उसकी साधना करते समय कितनी भी भौतिक तकलीफ़ हो, फिर भी उससे मुझे विवेक का adhikaadhik स्पष्ट दर्शन होगा, मैं अधिकाधिक पूर्ण, उन्नत और शुद्ध हो जाऊँगा… ऐसा उनका सत्य नाम वाला ईश्वर था। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि विवेक का अधिकाधिक स्पष्ट दर्शन होना, अधिकाधिक पूर्ण, उन्नत और शुद्ध होना, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसके लिए मुझे अपना ही आधार लेना पड़ता है। वह आधार विवेक का है या अंतरात्मा की ? या दोनों एक ही हैं? यह प्रत्येक को तय करना है। पर एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कृति और निर्णय मेरा व्यक्तिगत होता है।
आस्तिक या नास्तिक बनना यह आपकी व्यक्तिगत धारणा है। उसे पर तात्विक चर्चा करना में समझ सकता हूं । लेकिन जैसे घर के गणपति को हमने रास्ते पर लाकर प्रॉब्लम्स निर्माण हुए, वैसे ही आपकी व्यक्तिगत भावना को रास्ते पर लाकर सार्वजनिक करके गलती मत करना यह मेरी विनती है।
3. तीसरा बिंदु : समाज में जीवन जीते समय मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक, इससे कहाँ बाधा आती है? इस बारे में दो बातें कहता हूँ, आप उनसे जो चाहें अर्थ निकालें। आंध्र के कार्यकर्ता गोप राजू रामचंद्र राव, सभी उन्हें गोरा कहते थे, वे गांधीवादी होते हुए भी कठोर नास्तिक थे। वे गाँव‑गाँव जाकर नास्तिक विचार का प्रसार करते थे। गांधी की तरह वे भी अंतरजातीय विवाह के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने अपनी बेटी का विवाह दलित युवक से करने का निर्णय लिया और यह निर्णय गांधीजी को बताया। गांधी का पत्र आया कि विवाह आश्रम में किया जाए। गोराने मना कर दिया क्योंकि आपके मंगलाष्टक में ईश्वर का नाम है। गांधी ने कहा, इतनी सी बात है , ईश्वर का नाम हटाकर सत्य शब्द इस्तेमाल किया जाएगा। गोराने सहमति दी। अप्रैल 48 में विवाह की तिथि तय हुई। गांधीजी के बाद आश्रम में विवाह हुआ। मंगलाष्टक में ईश्वर नहीं था। गोराने गांधी के साथ हुई चर्चाओं पर एक उत्कृष्ट पुस्तक लिखी है। उसे किशोरलाल मशरूवाला की प्रस्तावना और भी उत्कृष्ट है। पुस्तक का नाम है An Atheist with Gandhi इसका मराठी अनुवाद मनोविकास ने प्रकाशित किया है। ' नास्तिकासोबत गांधी '।
गांधी और गोरा के बीच समानता क्या है, यह प्रश्न मशरूवाला ने उठाया और उस पर चर्चा करते हुए एक नई अवधारणा प्रस्तुत की है – “अत्यावश्यक धार्मिकता" । हम अत्यधिक तड़प के साथ समाज परिवर्तन के कार्य में लगे रहते हैं। उस समय यह समाज हमारे अनुसार कभी बन पाएगा, इसकी कोई शाश्वती नहीं है, न ही इसका वैज्ञानिक आधार है। फिर भी समाज को उन्नत अवस्था में ले जाने का प्रयास करना हम अपने जीवन का श्रेय मानते हैं। इसके लिए चाहे जो भी कष्ट सहन करने की तैयारी रखते हैं। यह मनुष्य क्यों करता है? यह मानवी प्रेरणा को मशरूवाला ने “अत्यावश्यक धार्मिकता”कहा है।लिखते समय मशरूवाल के सामने दो लोग हैं – एक सर्वसमावेशी आस्तिक, दूसरा कठोर नास्तिक। मेरे विचार में यहाँ आस्तिकता या नास्तिकता गौण हो जाती है और मानवीय मूल्यों के प्रति तड़प और समाज परिवर्तन की प्रेरणा प्राथमिकता लेती है।
आस्तिकता‑नास्तिकता कहाँ आती है? इसका दूसरा उदाहरण मेरे ही साथ ही हुआ है। अभी हाल ही में नागपुर में दंगा हुआ। उसके तुरंत बाद ईद थी। वर्धा जिले सहित महाराष्ट्र में मुस्लिम समाज में भय‑भरा माहौल था। हमें लगा कि इस बारे में कुछ करना चाहिए। हम सभी विभिन्न विचारों और धर्मों के लोगों को ईदगाह या मस्जिद के बाहर मिलकर प्रेम से “ईद मुबारक” कहना चाहिए, यह बताना चाहिए कि हमें आपकी भय की कल्पना है। भय‑मुक्त माहौल में ईश्वर की आराधना करने का आपको अधिकार है, हम ऐसा मानते हैं। हम आपके भाई हैं, हम आपके साथ हैं। इस कार्यक्रम को वर्धा, कोल्हापुर, सांगली, मुंबई आदि से प्रतिक्रिया मिली। साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रसिद्ध मेरे दो मित्र हैं। मैंने उनसे कहा कि हम पर्चा निकाल कर अपील करें, फेसबुक पर डालें, अगर संभव हो तो पास की मस्जिद के बाहर आप भी जाएँ। जनरल शांति का संदेश फैलाने के लिए पत्रक निकलना आसान होता है। लेकिन आज के सामाजिक ध्रुवीकरण स्थिति में ऐसी भूमिका लेना कठिन होता है साथ में कभी ऐसी भूमिका लेते समय ब्यावर सहायक मर्यादा भी रहती है यह मैं समझ सकता हूँ। लेकिन उन्होंने कहा, हम नास्तिक हैं इसलिए यह नहीं कर सकते। हम मंदिर नहीं जाते, मस्जिद कैसे जाएँ? मैंने दो बार विनती की, पर उन्होंने नास्तिकता का झंडा कंधे पर लेकर अपना रास्ता साफ कर लिया। उसी समय वर्धा के नास्तिक मित्रों के साथ ईदगाह के बाहर खड़ा होकर मैने “ईद मुबारक” कहा।
तो प्रश्न यह है कि हमारा प्राथमिकता क्या है? निजी भावनाओं को पकड़ कर मानवीय मूल्यों को दूर करना या निजी भावनाओं को मोड़ कर मानवीय मूल्यों को श्रेष्ठ मानना?
4. चौथा बिंदु : हमारी भाषा हृदय परिवर्तन की, मत परिवर्तन की है या सामने वाले को नष्ट करने, हटाने, खोने की? खंडन‑मंडन करके आनंद मिलता होगा, पर इससे हृदय परिवर्तन, मत परिवर्तन नहीं होता। आज मराठी सामाजिक मीडिया पर नास्तिकों का लेखन हृदय परिवर्तन करने वाला, विचार को प्रेरित करने वाला नहीं, बल्कि अत्यधिक आक्रामक होता है। बेशक सम्माननीय अपवाद भी हैं। अपने विचार दृढ़ता से रखना, फिर भी विरोधकोंका का सम्मान करना, अपमान न करना यह सीखना चाहिए, और परिपूर्ण रूपसे धर्मविषयक भूमिका को समझने के लिए, चाहे आप नास्तिक हों, गांधी ,विनोबा और साने गुरुजीके लेखन का अध्ययन आवश्यक है, ऐसा मुझे लगता है।
5. पाँचवाँ बिंदु : प्रकृति में मनुष्य प्राणी दूसरों से अलग है। वह रचना करता है, कल्पना करता है, यह उसका अलगाव है। जो नहीं है, उसे “नहीं” कहना, इसमें रचना, कल्पना और सर्जनशीलता नहीं होती। जो नहीं है, उसे “है” समझना और उस पर विचार करके रचना करना, यह कल्पना और सर्जनशीलता का लक्षण है। मनुष्य प्राणी इसमें रमण करता है, यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। परन्तु इसी से यहाँ नाटक, संगीत, कथा, साहित्य उत्पन्न हुए, संस्कृति बनी, यह हमें मानना पड़ेगा। यदि आप अपने विचार आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो आपके विचारोंमे abstraction का अवकाश कितना उपलब्ध है?कल्पना कितनी है, जिसमें मनुष्य प्राणी रमण करेगा? यह महत्व का मुद्दा है। समाज में आपके विचार के उत्सव, त्यौहार बनाने होंगे। कल्पना से वैकल्पिक संस्कृति स्थापित करनी पड़ेगी। इस कार्य की सफलता पर आपके विचार कितने फैलेंगे, यह निर्भर करता है।
6. छठा बिंदु : आज की बाहरी स्थिति कैसी है, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं, पर यदि हमें मानवीय मूल्यों की रक्षा और संवर्धन करना है, तो आपको आपका अपना धर्म बताना पड़ेगा, ऐसा मुझे लगता है। यह विधान आपको बहुत ही विवादास्पद लगना मुमकिन है, लेकिन हम इस पर चर्चा कर सकते हैं। हम में से जो जन्म से हिन्दू हैं, उनके लिए स्थिति अच्छी है। हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से तीन दर्शनों में नास्तिकता है। मैं हिन्दू हूँ, यह घोषणा करके आपका जो भी नैतिक आशय हैं, उसे हिंदू करके प्रस्तुत कर सकते हैं, यह सुविधा हिन्दू धर्म ने दी है। अगर कोई पूछे तो कह सकते हैं, हाँ मैं हिन्दू हूँ और नास्तिक भी हूँ।
7. सातवाँ बिंदु : आपका नास्तिक रहना आपका अधिकार है। परन्तु अपने व्यक्तिगत मानने को सार्वभौमिक बनाकर उसका “इझम” बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, यह विनती है। वह प्रयास असफल होगा।
इन सभी बिंदुओं पर हम बहुत समय तक गहन चर्चा कर सकते हैं। पर समय कम होने के कारण मैंने केवल विचार‑संकल्पित बिंदु प्रस्तुत किए हैं, कृपया आप इस पर शान्तचित्त से विचार करें और मुझे बताएं। मैं यहीं रहूँगा।
अंतिम स्पष्टीकरण: मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक, इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दूँगा, क्योंकि यह मेरा निजी मामला है।



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