सेगांव में आश्रम की स्थापना 1936

 

सेगांव में आश्रम की स्थापना 1936





सेवाग्राम आश्रम स्थापना दिवस अप्रैल 30, 2023

के अवसर पर एक प्रस्तुति


द्वारा

डॉ. सिबी के. जोसेफ, निदेशक, श्री जमनालाल बजाज मेमोरियल लाइब्रेरी

एंड रिसर्च सेंटर फॉर गांधीयन स्टडीज, सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान,वर्धा-442102, महाराष्ट्र



महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को सत्याग्रह आश्रम, अहमदाबाद को नमक मार्च के मद्देनजर इस दृढ़ संकल्प के साथ छोड़ दिया कि वे आश्रम में तभी लौटेंगे जब भारत को ब्रिटिश शासन से आजादी मिलेगी।.





                                                        बजाजवाड़ी

गांधी यरवदा जेल से रिहा होने पर 23 सितंबर, 1933 को वर्धा आए। वे बजाजवाड़ी में रहे, जो जमनालाल बजाज का निवास था, जो बाद में स्वतंत्रता संग्राम के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए एक राष्ट्रीय अतिथि गृह में बदल गया। यहीं से उन्होंने 7 नवंबर को अपनी हरिजन यात्रा प्रारंभ की



महात्मा गांधी 7 अगस्त, 1934 को फिर से वर्धा लौट आए और वर्धा में विनोबा भावे के सत्याग्रह आश्रम में रहे, जिसे वर्तमान में महिला आश्रम के रूप में जाना जाता है। इस अवधि के दौरान गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सेवानिवृत्त होने का फैसला किया




                          जमनालाल बजाज महात्मा गांधी सत्याग्रह आश्रम में 1934

गांधी को वर्धा में बसने के लिए राजी करने का श्रेय महात्मा के पांचवें पुत्र माने जाने वाले जमनालाल बजाज को जाता है




गांधी ने गांवों के उत्थान के लिए अपनी सारी ऊर्जा समर्पित करने का फैसला किया। 15 दिसंबर, 1934 को वर्धा में अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ का गठन किया गया। जमनालाल बजाज ने गांधी को बीस एकड़ जमीन और एक घर दान किया था, जिसे बाद में मगनलाल गांधी की याद में मगनवाड़ी नाम दिया गया, जो अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ का मुख्यालय बन गया।



                          अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की बैठक 16 मार्च, 1935



                                                 मगनवाड़ी अगस्त 1935




अगस्त 1935 में मगनवाड़ी में परमहंस योगानंद के साथ भोजन करते हुए गांधी

ग्राम - निवासके संबंध में मेरी कल्पना

दिल्ली, 19 मार्च, 1936


जमनालाल बजाज को संबोधित

 

यदि बा चाहे तो उसे लेकर या न  चाहे तो अकेले  ही मैं सेगाँव में झोंपड़ीबनाकर  रहने  की सोचता हूँ। 

मीराबहनवाली झोंपड़ी शायद मेरे लिए  काफी न हो।

झोंपड़ी बनाने में  कमसे - कम खर्च करना चाहिए१०० रुपये  से ज्यादा  खर्च  तो  आना ही  नहीं चाहिए।

मुझे  आवश्यक  सहायता सेगाँवसे ही प्राप्त  करनी  चाहिए।जब- जब जरुरत हो मुझे मगनवाड़ी जाते रहना चाहिए। 

ऐसा करने के लिए जो वाहन मिले उसका उपयोग करना चाहिए।

...मीरा... मेरी  सेवाके  लिए समय न दे , लेकिन वह गांव के काम में मदद दे सकती है।  आवश्यक हो तो महादेव, कान्ति आदि उसी गांव में रहे।  उनके लिए सादी झोपड़ी बनानी चाहिये। 

ऐसा करते हुए  बाहर  के जिन कामो में मैं भाग ले रहा होऊ उनको जारी रखू। कोई खास जरुरत न हो तो बाहर के लोग मुझसे मिलने के लिए सेगाँव न आये। मगनवाड़ी जाने के जो दिन तय हुए हो उन दिनों वे मुझसे मिल लिया करें। 

बापू


भाषण : सेगाँव के निवासियों के समक्ष


17  अप्रैल 1936 के पश्चात

मीराबहन, जो आप लोगों के बीच में रहती हैं, यहाँ हमेशा के लिए बस जाने का इरादा लेकर ही आयी थी।  मगर मैं देखता हूँ कि वह अपनी इस मंशा को पूरा करने की स्थिति में नहीं हैं। वह यहाँ बनी भी रहे, तो ऐसा करने के लिए उन्हें भारी मानसिक द्वन्द करना पड़ेगा।  कमी उनमे इच्छाशक्ति की नहीं हैं , पर शायद शरीर अशक्त हैं।  यह तो आप लोग जानते ही हैं कि हम दोनों इतने दिनो से एक सामान्य सेवा के बंधन में बंधे हुए है।  इसलिए मैंने सोचा कि मीराबहन जो काम नहीं कर सकी उसे पूरा करना मेरा धर्म हो जाता हैं।  इसलिए अगर ईश्वर की मर्जी हुई तो मैं आप लोगों के बीच मे रहने को आपके गांव में आ जाऊंगा।  ईश्वर मुझे वह शक्ति दे जो उसने मीराबहन को प्रदान नहीं की। मीराबहन, जो आप लोगों के बीच में रहती हैं, यहाँ हमेशा के लिए बस जाने का इरादा लेकर ही आयी थी।  मगर मैं देखता हूँ कि वह अपनी इस मंशा को पूरा करने की स्थिति में नहीं हैं। वह यहाँ बनी भी रहे, तो ऐसा करने के लिए उन्हें भारी मानसिक द्वन्द करना पड़ेगा।  कमी उनमे इच्छाशक्ति की नहीं हैं , पर शायद शरीर अशक्त हैं।  यह तो आप लोग जानते ही हैं कि हम दोनों इतने दिनो से एक सामान्य सेवा के बंधन में बंधे हुए है।  इसलिए मैंने सोचा कि मीराबहन जो काम नहीं कर सकी उसे पूरा करना मेरा धर्म हो जाता हैं।  इसलिए अगर ईश्वर की मर्जी हुई तो मैं आप लोगों के बीच मे रहने को आपके गांव में आ जाऊंगा।  ईश्वर मुझे वह शक्ति दे जो उसने मीराबहन को प्रदान नहीं की।पर भगवानकी भी इच्छा अनेक माध्यमोसे प्रगट होती हैं और अगर आप लोगोंका सद्भाव मुझे नहीं मिलेगा तो मैं भी अपने काम में असफल ही रहूँगा।  बचपन से ही मेरा यह सिद्धांत रहा हैं कि मुझे उन लोगोंके ऊपर अपना भार नहीं डालना चाहिए जो अपने बीच में मेरा आना अविश्वास, संदेह या भयकी  दृष्टी से देखते हो। आप लोगोंकी  सेवा करने के सिवा यहाँ आनेकी दूसरी कोई बात मुझे सोचनी ही नहीं चाहिए।  पर कई जगह मेरी उपस्थिति और मेरा कार्यक्रम काफी भय कि दृष्टी से देखा जाता हैं। इस भय के पीछे यह कारण हैं कि अस्पृश्यता - निवारण को मैंने अपने जीवन का एक धेय्य बना लिया हैं।  मीराबहन से तो आपको यह मालूम ही हो गया होगा कि मैंने अपने दिल से अस्पृश्यता सम्पूर्णतया दूर कर दी हैं।  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र , राजपूत , महार, चमार, सभी को मैं समान दृष्टी से देखता हूँ और जन्मके आधारपर माने जाने वाले इन तमाम ऊंच -नीच के भेदों को मैं पाप समझता हूँ।

इन भेदभावों के कारण ही हम दुःख भोग रहे हैं और ऊंच-नीच कि इस दुष्ट भावना ने हमारे जीवन को दूषित और भ्रष्ट कर दिया हैं। पर मैं आपको यह बता दू कि मैं अपने इन विश्वासों को आप लोगों के ऊपर लादना नहीं चाहता।  मैं तो दलीलें देकर , समझा- बुझाकर और सबसे बढ़कर अपने उदहारण के द्वारा आप लोगों के ह्रदय से अस्पृश्यता य ऊंच-नीच का भाव दूर करने का प्रयत्न करूँगा आपकी सड़कों और बस्तियों की चारों तरफ से सफाई करना , गांव में कोई बीमारी हो तो यथाशक्ति सहायता पहुँचाने की चेष्टा करना और गांव के नष्टप्राय गृह-उद्योगों या दस्तकारियों के पुनरुद्धार- कार्य में सहायता देकर आप लोगों को स्वाश्रयी बनने की शिक्षा देना -- इस तरह मैं आपकी सेवा करने का नम्रतापूर्वक प्रयत्न करूँगा।  आप अगर मुझे अपना सहयोग देंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी।  अगर आपने सहयोग न दिया तो आप लोगों में जो यहाँ रहते हैं , उनमे अपने को जज्ब कर देने में मैं संतोष मान लूंगा।

मैं आशा करता हूँ कि मैं यह आकर बस जाऊंगा।  पर अंत में तो सब ईश्वरकी इच्छापर ही निर्भर करता हैं।  मैं यह कब जनता था कि वह मुझे हिन्दुस्थान से दक्षिण अफ्रीका भेज देगा और दक्षिण आफ्रिका से साबरमती आना होगा। और फिर साबरमती से मगनवाड़ी और अब मगनवाड़ी से उठकर आपके गांव में आना पड़ेगा।

 


भाषण : अखिल भारतीय साहित्य परिषद् में  ,नागपुर, अप्रैल 24, 1936

   बस, मेरा इतना ही काम है।  इस हेतु मैं थोड़े समय के लिए यहाँ आ तो गया हु पर आप यह जान ले कि मेरा मन यहाँ नहीं है , और वर्धा में भी नहीं है।  मेरा दिल तो गावों में हैं।  इधर कई दिनों से मैं सरदार के साथ लड़ रहा हूँ कि वे मुझे वर्धा के पास एक गांव में बैठ जाने दे।  वे तो अब भी नहीं मान रहे है, पर मेरे मन को संतोष नहीं होता , और ईश्वर ने चाहा तो मैं आशा करता हूँ कि जल्द ही वर्धा के पास एक गांव में बैठ जाऊंगा।  पर इसका यह अर्थ नहीं कि जो काम मैं अभी कर रहा हूँ वह नहीं करूँगा , या अपने मित्रों को या उन्हें, जो मेरी सलाह लेना चाहेंगे , सलाह नहीं दूंगा।  सिर्फ मेरा पता बदल जायेगा।  मैं अपने सब साथियों से, जो ग्राम कार्य कर रहे है, ग्रामो में जा बसने और ग्रामवासियों की सेवा करने के लिए कहता रहता हूँ।  मुझे लगता है कि मैं जब तक खुद किसी गांव में नहीं बैठ जाता हूँ , तबतक मैं दूसरोंसे उसपर ठीक-ठीक अमल नहीं करा सकता।





सेगाँव 

महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में पहला ग्राम विकास कार्य सिंदी नामक एक छोटे से गाँव में शुरू किया गया था। लेकिन वह एक विशिष्ट गांव की तलाश में थे. मैडेलीन स्लेड (मीराबेन), जो ब्रिटेन से गांधी की शिष्या थी, उन्होंने वर्धा शहर से लगभग चार मील दूर पूर्व में सेगाँव गांव का चयन किया। यह गांव भारत के मध्य भाग में नागपुर से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर है।  


पत्र : मीराबहन को

वर्धा : 29 अप्रैल 1936

 

चि. मीरा,

ईश्वरने चाहा तो कल आ रहा हूँ।  कागज भेजा जा रहा है।  शेष मिलने पर।  आशा है, 7  बजे प्रातः काल के करीब तुमसे आ मिलूंगा।

बापू

 


30 अप्रैल 1936 को मगनवाड़ी, वर्धा से सेगांव के लिए पैदल चलते हुए गांधी और सहकर्मी

 

30 अप्रैल, 1936 को सेगाँव में बस गए

30 अप्रैल, 1936 को महात्मा ने सेगाँव को अपना घर बना लिया। वहाँपर एक अमरूद के पेड़ के नीचे वे एक अस्थायी व्यवस्था में रहे क्योंकि उस समय उनकी झोपड़ी तैयार नहीं थी। अपनी पहली यात्रा में वे यहां केवल कुछ दिन ही रुके थे। वे 67 वर्ष के थे और वे गाँव से दूर रहकर  समुदाय के रूप में आश्रम बनाने के पक्ष में नहीं थे। वास्तव में वह पूरे गांव को एक आश्रम में बदलना चाहते थे । वे गांव में अकेले रहना चाहते थे और उनका कहना था की कस्तूरबा चाहें तो शामिल हो सकती हैं। लेकिन कालांतर में यह जगह एक आश्रम का रूप धारण कर रही थी  

 

 बातचीत : एक कार्यकर्ताके साथ
30 अप्रैल 1936

बापू, इस गांव में आकर आप बैठ जाये , इसके बजाय आप ग्राम पुनर्रचना का कार्यक्रम लेकर सारे देश में दौरा करने की बात सोचे तो कैसा होगा? मैं नहीं कह सकता कि आपके उस हरिजन प्रवास में ईश्वर का कैसा अनुग्रह था, लोगों के हृदय में उसने किस तरह एक मूक क्रांति पैदा की थी।  यह काम और किसी भी तरह नहीं हो सकता था।  तो क्या आप उसी तरह का दौरा फिरसे नहीं कर सकते ?

गाँधी : नहीं भाई।  हरिजन-कार्य और ग्राम पुनर्रचना, इन दोनों कार्यो में कोई सादृश्य नही।  हरिजन-कार्य में व्यावहारिक और सैद्धांतिक दो दृष्टियाँ मिली हुई थी।  पर यहाँ मैं उन दोनों को मिला नहीं सकता।  इतने दिनो से मैं ग्राम कार्य के विषय में सिद्धांत ही सिद्धांत की बात कर रहा हूँ।  कभी बातें  करता हूँ , कभी लोगों को सलाह देता हूँ।  ग्राम-कार्य मे क्या -क्या मुसीबते आती है उनका मैंने खुद अनुभव नहीं किया।  अगर किसी गांव में , गांव के लोगों के बीच में, गर्मी, बरसात और जाड़ा काटकर एक बरस के बाद मैं दौरा करुँ तो मैं गावो के सम्बन्ध में ज्ञान और अनुभव के साथ बात कर सकूंगा। अभी न मैंने वह ज्ञान प्राप्त किया है, न अनुभव।  कल मैं गजानन नाइक का काम देखने सिंदी गांव गया था।  वहाँ की हालत तो पहले से शायद ही कुछ अच्छी है, पर गजानन नाइक अपना काम धीरज और उत्साह के साथ बराबर किये जा रहे है।  कल सवेरे जब मैंने उन्हें वहाँ काम करते देखा, तो मैंने अपने मन में कहा , " गजानन के साथ अगर मैं खुद काम करता होता तो जो-जो कठिनाइयां उनके सामने आ रही है उनका अवश्य मुझे काफी निकट से अनुभव हो जाता। " यह बात मुझे आज पहले से भी अधिक स्पष्ट हो गयी है कि मेरा स्थान गांव में ही है।

पत्र : प्रभावती को

30 अप्रैल 1936

चि. प्रभा ,

मैं आज सेगाँव आ गया हूँ।  तीन दिन तो रुकूंगा ही।  फिर दो या तीन दिन के पश्चात तारीख 8  को मैं बंगलौर के  लिए रवाना हो जाऊंगा।  …. मेरे साथ सेगाँव में प्यारेलाल ही है।  बा बीमार है , इसलिए यहाँ नहीं आयी।

बापू के आशीर्वाद

 

पत्र : एस्थर मेनन को

30 अप्रैल 1936 या उसके पश्चात

मैं तुम्हे सेगाँव नामक गांव से लिख रहा हूँ, जहाँ मैं बस जाना चाहता हूँ। मीराबाई पहले से ही इस गांव में है।  अगर मैं यहाँ बस गया तो वह किसी दूसरे गांव में जाएगी।  यदि संभव हुआ तो मैं यहाँ अपने साथ किसी भी पुराने सह-कार्यकर्ता को नहीं रखना चाहता। 

सप्रेम ,

बापू

पत्र : अमृत कौर को

सेगाँव, 1  मई , 1936

खैर, आख़िरकार मैं सेगाँव आ गया हूँ।  प्यारेलाल मेरे साथ हैं।  मुझे उसकी जरुरत थी।  बा को भी आना था, लेकिन उसकी तबियत ख़राब थी।  तुम्हें यह जानकर ख़ुशी होगी कि लगभग पूरा रास्ता मैंने पैदल पार किया।  लेकिन इससे मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई।  बाकी के तीन चौथाई मील के लिए मैंने बांदी (गाड़ी) ले ली थी , क्योंकि हम रास्ता भूल गए थे और दूसरे लोग मेरे बारे में परेशान हो रहे थे।  हम कल आये हैं।

रात बहुत सुहावनी थी।

सेगाँव में डॉ .बी आर अम्बेडकर गांधी के पहले आगंतुक

जिस दिन गांधी ने सेगाँव में बसने का फैसला किया, उसके अगले दिन 1 मई, 1936 को, उन्होंने इस गाँव में अपने पहले आगंतुक डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का स्वागत किया। छह महीने पहले डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने घोषणा की थी कि वह हिंदू धर्म का त्याग कर रहे हैं और दूसरे धर्म में परिवर्तित होने के अपने इरादे की घोषणा कर रहे हैं। अम्बेडकर ने अभी-अभी अमृतसर में सिखों के एक सम्मेलन में सहभाग लिया था जहाँ उन्होंने सिख बनने की संभावना का संकेत दिया था क्योंकि सिख धर्म अपने सभी अनुयायियों को समान मानता है। बातचीत में दोनों में धर्मांतरण के सवाल पर बहस हो गई। उनमें से कोई भी चर्चा के परिणाम से खुश नहीं था और वे फिर से मिलने के लिए तैयार हो गए।

पत्र : वल्लभभाई पटेल को

सेगाँव, 1  मई 1936

भाई वल्लभभाई ,

सचमुच इस गांव कि आबोहवा बहुत अच्छी हैं।  रात को अच्छी ठंडक थी। खाने -पिने की सुविधा का ध्यान रखा जा रहा हैं।  परन्तु इसके बारे में तो मै फुरसत के वक्त लिखूंगा।  डॉक्टर (आंबेडकर) और वालचंद सेगाँव में मिले थे।  वे फिर आएंगे। 

बापू के आशीर्वाद

पत्र : अमृत कौर को

सेगाँव, 4  मई , 1936

चूँकि महादेव यहीं हैं और तुम्हारा पत्र लाया हैं, इसलिए मुझे यह पत्र उसके हाथ ही भेज देना चाहिए। मगनवाड़ी में तुम्हारी डाक आम तौर पर शाम को आती हैं। इसलिए मैं तुम्हारे पत्रों का उत्तर उसी दिन नहीं दे पाता। सेगाँव में तुम्हारी डाक काफी रात गए आती है, यह भी वैसी ही बात हुई। अतः आनेवाले पत्रों में तो कोई देरी की बात हैं ही नहीं।

….तुम इस बात से आश्वस्त रहो की मेरा वक्त सेगाँव में बड़े मजे में गुजर रहा हैं।

पत्र : अमृत कौर को

सेगाँव, 5  मई , 1936

अब तक तो तुम्हें सेगाँव से एक से ज्यादा पत्र तो निश्चय ही मिल गए होंगे।  मुझे पूरा यकीं है कि एक-दो दिन में तुम्हें वह स्थान और वहाँ का जीवन अच्छा लगने लगेगा।  बा मेरे साथ कल आयी है।  मैं पुरे रास्ते पैदल ही चला।  इसमें मुझे पुरे दो घंटे लगे।  लेकिन इसकी वजह यह रही कि हम रास्ता भूल गए थे।  हम सब रास्ते से अपरिचित थे और कोई मार्ग बतलानेंवाला हमारे संग नहीं था। और मेरा मौन था । मैं पूरा रास्ता पौने दो घंटे में आराम से तय कर सकता हूँ।  इस पैदल सफर से मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई और मैं शाम की सैर के लिए ताजा था।  महादेव और लीलावती पैदल चलकर रात साढ़े आठ बजे पहुंचे और जहाँ काम चल रहा है वही जमीन पर सो गए। हम सब वही सोते हैं, हमारे चारों ओर दोहरी खाईयां हैं और उनके किनारे-किनारे खोदकर निकाली हुई मिटटी की दीवार जैसी हैं।  यहाँ जो सब्जियाँ उगती हैं  हम वही खाते हैं। इस प्रकार हमे तरह-तरह की सब्जियाँ तो नहीं मिल पाती लेकिन यह सोचकर कि हम यहीं पर पैदा होनेवाली सब्जियाँ खा रहे हैं , हमे रहत तो मिलती हैं।  यदि यह प्रतिबन्ध जारी रहा तो इससे दूसरी सब्जियोंकी खेती करनेकी प्रेरणा मिलेगी।  इतना तो रहा सेगाँव के बारे में। मेरे रवाना होने की तारीख 8 मई हैं , याद रखना।  मै सेगाँव से 8  की सुबह रवाना होऊंगा। 


मुख्य गतिविधियां


अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की प्रदर्शनी में भाषण वर्धा, 3 मई, 1936

खादी यात्रा पर भाषण पौनार, 6 मई, 1936

अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की बैठक में भाषण वर्धा, 7 मई, 1936




                        वर्धा और सेगांव/सेवाग्राम के बीच एक तांगे की सवारी, मई 1936




                                                 अपनी कुटिया के सामने सेगाँव में 1936



                                                       मीरा बहन के साथ
1936




                                        गांधी 1936 में सेगांव में ग्राम सेवा के लिए हो रहे तैयार   


मेरा एक पागलखाना है 

सेवाग्राम के शुरुआती दिनों में गांधी

अमृत ​​कौर : तुम अपने आश्रम के पागलों के निजी मामलों में इतना समय क्यों बर्बाद करती हो?

गांधी: "मुझे पता है कि मेरा एक पागलखाना है और मैं सबसे पागल हूँ। परन्तु जो इन पागलों में अच्छाई नहीं देख सकते, वे अन्धे हैं।”

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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